जंगली जड़ी बूटी सा हूँ मैं दोस्तो,,,
किसी को ज़हर तो किसी को दवा सा लगता हूँ..$$
जंगली जड़ी बूटी सा हूँ मैं दोस्तो,,,
किसी को ज़हर तो किसी को दवा सा लगता हूँ..$$
फिर मैं अकेला होता जा रहा हू।
सड़को के पत्थरों की तरह टूटता जा रहा हू।
कोई पैरों तो कोई गाड़ियों से रौंधता है मुझे।
हर पल अपने अस्तित्व से छोटा होता जा रहा हू।
फिर मै क्यों अकेला होता……
मौसमो की मार कम कहा थी जो बरसात होने लगा।
अब टूटे हुए हिस्से भी साथ रह न सके।
कोई किनारे तो कोई गड्ढो में धकेलता है मुझे।
इस लाचार जिंदगी में खोखला होता जा रहा हू
फिर मैं अकेला होता जा रहा हू।
जो हिस्से जो कस्मे जो नाते जो वादे थे मेरे
वे ही पीछे छोड़ते जा रहा हू।
जब जाना ही है जिंदगी को लेके तो मौत से क्यों घबरा रहा हूँ।
शायद ये भ्रम था कि मैं मिट्टी से अलग हू पर टूटने के बाद वही बनता जा रहा हू।
फिर मैं अकेला होता जा रहा हू।
फिर मैं अकेला होता जा रहा हू।
सड़को के पत्थरों की तरह टूटता जा रहा हू।
कोई पैरों तो कोई गाड़ियों से रौंधता है मुझे।
हर पल अपने अस्तित्व से छोटा होता जा रहा हू।
फिर मै क्यों अकेला होता……
मौसमो की मार कम कहा थी जो बरसात होने लगा।
अब टूटे हुए हिस्से भी साथ रह न सके।
कोई किनारे तो कोई गड्ढो में धकेलता है मुझे।
इस लाचार जिंदगी में खोखला होता जा रहा हू
फिर मैं अकेला होता जा रहा हू।
जो हिस्से जो कस्मे जो नाते जो वादे थे मेरे
वे ही पीछे छोड़ते जा रहा हू।
जब जाना ही है जिंदगी को लेके तो मौत से क्यों घबरा रहा हूँ।
शायद ये भ्रम था कि मैं मिट्टी से अलग हू पर टूटने के बाद वही बनता जा रहा हू।
फिर मैं अकेला होता जा रहा हू।
नमस्कार । जय हिन्द।
स्वतंत्रता दिवश की ढेर सारी शुभकामनाये। “स्वतंत्रता दिवश” यह शब्द सुनते ही हमारे देश के उन अनगिनत सपूतो, शहीदों और स्वतंत्रता सेनानियों की याद आ जाती है जिन्होंने हमारे देश को स्वतंत्र कराने के लिए अपना सर्वश्व न्योछावर कर दिया। देश हमेशा उनको याद रखेगा। ये सेनानी उन नामो से कहीं ज्यादा हैं जिन्हें हम जानते हैं। उनकी सहादत से मिली आजादी के लिए देश उनका हमेशा कर्जदार रहेगा।
पर आजादी के उन नायको को याद रखमे के साथ हमे अपने कर्तव्य को भी याद रखना चाहिए। और देश के हर नागरिक को उसकी स्वतंत्रता के लिए छोड़ देना चाहिए। हमे अंग्रेजो, मुगलो से स्वतंत्रता तो मिल गयी पर उस स्वतंत्रता का स्वाद आज भी बहोत सारे लोग नही जान पाये हैं जिसके लिए हैम सबको सोचना चाहिए।
जैसे आज भी देश में 25%लोगों को एक वक्त खाना नसीब नही होता है। वो आज भी मजबूर हैं। आज आजादी चाहिए “बोलने के अधिकार”को लेके जिसके वजह से गरीबो को दबा दिया जाता है।
आजादी चाहिए उस मानसिक सोच से जो बेटियों को बेटो से कम आंकते हैं। आजादी चाहिए दलितों और पिछडो पर हो रहे अत्याचार से। आजादी चाहिए आरछण की खाई से जो समाज को जाती के नाम पे अलग करता है।
हमारा देश अपने प्राचीन संस्कृति के लिए विश्व् विख्यात है। और आज यह विश्व् के सबसे प्रबल अर्थव्यव्स्था भी बन गया है। हमारे देश को विश्व बैंक ने निवेशकों के लिए सबसे अच्छा देश बताया है। इसके साथ WHO के मुताबिक देश विश्व् के सबसे ज्यादा गरीब लोगों का देश भी भारत है। 2014 में हमारे देश में विश्व् के 21% गरीब लोग भारत में हैं।
ऐसे में ये बात समझना जरूरी हो जाता है की जब देश इतनी तरक्की पर है तो ये लोग और गरीब क्यों हो रहे? क्योकि आजादी हमे इन्ही से बचने के लिए तो चाहिए थी। पूंजीवादियों और शोषण से ही तो आजादी चाहिए थी हमें। अंग्रेजो के समय उठे विद्रोह का मूल कारण हमारी गरीबी दूर करना था, गरीबों का शोषण रोकना था। पर आज जब हैम 70वी आजदी दिवश मना रहे हैं तो क्या हम इनसे आजाद हो पाये हैं ?
आज हमें और आपको मिल के इस खाई को पाटना है।
एक तरफ हम देश के अंदर ऑटोमोबाइल सेक्टर में विकाश की उचाईयों को छू रहे हों तो दूसरी तरफ दुनिया के 20 प्रदूषित शहरों में 10 भारत के ही हैं। जिसमे हमारे देश की राजधानी पहले पे है।
हमे यह भी ध्यान रखना होगा की आजादी को आज 70 साल बाद भी हमारे देश में सरकारें साफ़ पीने योग्य पानी नही उपलब्ध करा पाई।
उम्मीद है यह स्वतंत्रता वर्ष हमारी मूलभूत समस्याओं का आखिरी वर्ष होगा।
जय हिन्द।
नितीश कुमार पाण्डेय
पत्तो से होते हुए जब तू मेरे पास आती है, हाथो और पैरो में सिहरन सी हो जाती है।
सोचता हु कैद कर लू तुझे बन्द मुट्ठी में, रेत से तू निकलकर दूर हो जाती है।
तुझ से दूर भी नही हो पाता और सिर्फ मेरी ही नही रह पाती तू
तुझे मानता भी हू चाहता भी हू फिर क्यों दूर चली जाती तू?…
तेरे रंग अनेक तेरे रूप अनेक, तू हर रूप की रानी है
अब तू बहोत सयानी है अब तू बहोत सयानी है।।
ना करती है तू भेद भाव ना करती कभी गुरुर है
तेरे संपर्क में आके मिलता बहोत सुकून है
हर ऋतु में तेरा रूप अनेक हर बार तेरा चेहरा अलग
हर रूप रूप हर रंग रंग में होती तू अनुकूल है।
नमस्कार
ठंडी हवाएं मानो शिमला से सीधे यही चली आ रही हो। शरीर में ठंढक का एहसास ही कुछ ऐसा था।
सूरज की लाल से सफ़ेद होने के सफ़र में हम भी निकल गए थे पलायन को। पास से गुजरती लंबी गाडियो से तो मानो कपकपी सी उठती है मोटर साइकिल सवार लोगों को। चंद पलो का साथ छूट गया अब सूरज की लाल रौशनी का मैंने भी byke छोड़ बस पकड़ लिया। सब अपना काम कर रहे हैं सूरज समय और मै।
पास की सीट पर एक निराला की कविताओ के ही सामान एक वृद्ध महिला बैठी थीं जिनकी उम्र अब 75 की हो चुकी होगी। देख के वह देश के शास्त्री जी की किसान परिवार वाली प्रतीत हो रही थी। कुछ भी नया नहीं था इस सफ़र में। कंडक्टर से टिकट लिया और फ़ोन से डिजिटल दुनिया से जुड़ने लगा। हमारी और आपकी यादास्त शायद इतना साथ ना दे पर वो महिला कंडक्टर को पहचान गयी की वो उसके बहीनोरे के गाव का लड़का है और फिर क्या था झट उसने अपना परिचय बताया। मुझे आच्छा लगा चलो लोग पहचानते तो हैं इस दुनिया में एक दूसरे को वरना शहरो की दुनिया में ये कहा होता है?
पर किराये पर बात बिगड़ गयी वो हर बार 15 देती है इस बार 18 नही देगी। पैसों की एहमियत थी उस महिला में। बाकी बस में बैठे लोग मानों अभी नींद से उठे ही नही थे या फिर सो रहे थे।
उसने मुझे बताया की “बाबू भड़कुलवा जाना है बस रुकवा देना”। भाषा का फेर है मेरे लिखने और उनके बोलने में पर शपष्ट समझने लायक।
कुछ पल बाद उस दीन दिखने वाली महिला ने झोले से भारत की सर्वाधिक विश्वसनीय कंपनी का नोकिया फ़ोन निकाला और बेझिझक ( जैसे उसने पहले भी किया हो) मेरे हाथ में देके बोली रवी को मिस कॉल दे दो। मै ज्यो ही नंबर मिलाता की उसने खा देखना फ़ोन ना उठा ले। शयद यह एक संकेत था की मै आ गयी और उसे लेने कोई आ जाए।
मै तरस खा रहा था मल्टी नेशनल कम्पनियों पर जिनके उपभोक्ता इतने समझदार हैं। इतना तो मै समझ ही गया था कि वो व्यवसाय में मुझसे समझदार और निपुड़ थीं। और digitlization का इतना अच्छा उपयोग तो मैंने उनको देख के कभी अनुमान नही किया था। और इतना भी समझ गया की डिजिटल होना और आधुनिक चका चौन्ध से जुड़ना कितना आसान है। फ़ोन रखने के क्रेज की दुनिया में उपयोगिता का अच्छा पाठ पढ़ा गयी वो मेरे महंगे फ़ोन से कही ज्यादा उपयोगी हो गया था उनका वो फ़ोन और जब तक इन बातों को समेट पाता वो उतर के जा चुकी थीं। शयद वो औरत अनजाने में मेरी गुरु बन गयी उस दिन की। मै भी अब बाकी यात्रियों जैसा ही अनजान खिड़की से गेहूं के कटे खेतो और पेड़ों से गुजरता हुआ कुष्मी जंगल को ताड़ते हुए गोरखपुर कब आ गया नही पता चला। अब गाड़ियों की आवाजे बढ़ने लगीं जो अब सही मायने में शहरों के स्टैण्डर्ड को तय करती हैं। उतरने का वक्त आ गया और मै भी जाने लगा।
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आज मेरी ही तरह सब खामोश इस अँधेरे को निहारते यह सोच रहे हैं की क्या खो दिया और बदले में ये पा रहे की जो खो दिया उसे शब्दों में बता पाना उतना ही मुश्किल है जितना इस अँधेरे में सूर्य की कल्पना करना।
हर कोई इस महान पुरुष के जिंदगी के ढेरो पहलुओ को जानता है और इनकी बातो और कहानियो से जुड़ा है और इन सब का श्रेय सिर्फ इन्हें ही जाता है।
बचपन की गरीबी से लेकर महामहीम तक के इस सफ़र में सभी को उनके बारे में सब या सब का कुछ पता है, हो भी क्यों न वो चाहते भी तो यही थे की वो अपनी सारी जानकारियां सारे शोध, सारे ज्ञान को हर उस व्यक्ति तक पहुचाये जिसे उसकी जरूरत है।
मुझे उनकी जिंदगी की किसी भी एक बात या वाक्य को आपके सामने रखने का मन नही कर रहा क्योकि शायद उनके बाकी दिनों और बाकी शब्दों के साथ बेमानी होगी, ऐसे पुरुष का हर दिन प्रेरणादायी था ।
भारत रत्न से सम्मानित इस व्यक्ति को शब्दों में बताना असंभव को परिभाषित करता है।
इनको जो चाहे कहिये सब अधूरा सा लगेगा…एक अध्यापक के रूप में या वैज्ञानिक या समाज सुधारक या मिसाइल मैन या फिर बच्चों के दोस्त… कुछ भी कह सकता है कोई पर मै इन्हें देश भक्त कहूँगा।
भारत रत्न आज आपना सीना ऊँचा किये होगा क्योकि वो इस सपूत के संपर्क सानिध्य को पाया।
दूसरा कोई रत्न भले हो जाए भविष्य में जो भारत रत्न को पीछे छोड़ दे पर कोई रत्न नही होगा जो इनकी कमियो को पूरा कर सके।
आज मै उस अपने एकलौते ट्वीट को भी धन्य समझता हूं जिसमे मैंने उन्हें अंकित किया था।
दुःख है एक दो में नही बदल सका।
आखिर क्या जादू था इन हाथो में जिससे वो अपनी सोच को अंजाम देते थे। पर उनका मानना मेरे मानने से अलग है। वो पूर्णतया कर्म के पुजारी थे।शायद आज मेरी ही तरह किसी को सोचना नही पड़ा कि किस अंदाज में व्यक्त करना है अपनी सोच को बस जो मन में आया वो बोल दिया या लिख दिया।
पर इन शब्दों और बातो की मजाल कहा जो वो सब लिख पाये या बता पायें जिससे इनको पूर्ण रूप दिया जा सके।
आज की इस रात को उसी के हवाले छोड़ता हूं क्योकि उसे भी आज शांति चाहिए।
ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे यही प्रार्थना है।
नितीश कुमार पाण्डेय
नमस्कार,
1884 से यह जब भी इस्तमाल में आया कुछ ने विरोध जताया तो कुछ की सहमति मिली।
पर विगत कुछ वर्षो से दी जाने वाली फांसीयो पर राजनीतिक ताप का असर देखने को बखूबी मिला।
1993 मुम्बई धमाको के आरोपी याकूब को जहाँ एक ओर एक के बाद एक न्यायिक अदालतों ने फांसी की सजा पर मुहर लगाई वही राजनीतिक मुहर लगने में अलगाव दिख रहा है।
MIM सहित कुछ संगठन इस फैसले पर ऐतराज जता रहे हैं वही सलमान खान ने भी ट्वीट कर याकूब की जगह टाइगर को फ़ासी दिए जाने को सही बताया। पर इस पर तीखी प्रतिक्रिया देख ट्वीट हटा लिया।
सवाल इन लोगो से यह है की क्या उन 257 मारे गए तथा 750 घायलों को न्याय दिलाने का इन संगठनो के पास कोई दूसरा तरीका है।
सवाल इन लोगो की देशप्रेम पर भी उठता है।
हर एक निर्दोष के मौत पे “आरोपियों को फ़ासी दो” चिल्लाने वाले ये लोग 257 निर्दोषो के गुनेगर को फांसी देने पे विरोध में क्यों??
कुछ लोगो राजीव गांधी के हत्यारो को फांसी न देने पर यह सवाल भी उठाया कि अगर उनकी फांसी को रोक दिया जा सकता है तो याकूब के साथ क्यों नही?
मेरा विश्वास न्यायपालिका में पूर्ण रूप से है। पर व्यक्तिगत धरणा यही है की राजीव गांधी के हत्यारे देश के दुश्मन नही थे अपितु वे उनके व्यक्तिगत दुश्मन होंगे। संभव है मेरी बात से बहत से लोग अलग विचार रखते हों।
क्या देश के इतने बड़े देश द्रोही पर तरस दिखाना उन मासूमो के प्रति दुर्वावहर नही होगा जो बिना किसी गुनाह के मार दिए गए।
मेरा आश्चर्य तो सलमान भाई पर भी है की जिस न्यायव्यवस्था को वो इतने हलके में आज लिए उसी पर कुछ दिन पहले लोगो ने यह भी सवाल उठाये की सलमान खान होने की वजह से उन्हें सजा के दिन ही बेल मिल गयी तब क्या सलमान भाई भी उन लोगो से इत्तफाक रख रहे थे।
दया की याचिका लगाने वाले लोग क्या इन तस्वीरों को भूल गए जो आज भी उनके जहन में गूंजती हैं जो इनसे जुड़े थे।
क्या सच में उस न्यायिक व्यवस्था पे यकीन नही करना चाहिए जिसने एक गुनेगार को फांसी देने में 12 साल लगा दिए, और उनके ही परिवार के बाकी सदस्यों की फांसी हटा दी।
अवैसुद्दीन जैसे लोग इस मुद्दे को पुरे मुस्लिम समाज से जोड़ने में लगे हुए हैं। हो सकता हो उनका कोई राजनीतिक फायदा उन्हें मिलता हो पर उन्हें भी अपनी हद को न्यायपालिका के पहले तक ही रखना चाहिए। और किसी का ये सोचना की वो याकूब को सच में बचना चाहते हैं गलत भी हो सकता है क्योकि वो याकूब के नही बल्कि मुस्लिम वोट बैंक के नेता हैं। मेरा मानना गलत भी हो सकता है पर ये मेरा परीपेछ है।
वैसे तो अलग अलग रिपोर्ट्स को पढ़ के कुछ भी कहा जा सकता है पर इन 12 सालो में उनकी सुध किसने ली या उनकी रिपोर्ट किसने पढ़ी जिसने उस धमाके में अपना सब कुछ खो दिया ।
क्या इस देश में एक आतंकवादी को फांसी देने में भी किसी को बुरा लग सकता है सोच के बुरा लगता है। आखिरी के समय में गुनाह कुबूल कर लेने से गुनाह की तीव्रता कम नही होती। आज तक मैंने याकूब के परिवार वालो को ब्लास्ट पे दुःख व्यक्त करते नही देखा पर क्या बदल गया विगत कुछ दिनों से क्या सबको 2-4 दिन में उनके प्रति सच्ची वेदना याद आ गयी?
क्या ये इनकी आखिरी चाल नही समझी जाय याकूब को बचाने की?
30 जुलाई को नागपूर की जेल में उसे फांसी दी जानी है पर अभी भी कुछ ख्याति पुरुष लोग उसे बचाने के लिए कोर्ट से लेके राष्ट्रपति तक गुहार लगा रहे हैं। उम्मीद करता हूं की उन कुछ की बजाय सबका हित सोच के ही फैसला लिया जाएगा। मुझे विश्वास है न्यायपालिका पे।
नितीश कुमार पाण्डेय
जिंदगी एक संघर्ष बड़ी है,
आगे बढ़ते जाना है
न रुके कभी,न झुके कभी
लक्षय को पार पाना है।
विश्व् में जो हैं महान्
उनमें नाम कमाना है
सोच बदल देनी है सबकी
आगे बढ़ते जाना है।
बहुत हुआ बस और नही अब
अनथक पंखो से उड़ जाना है
उतंग की हर चोटी को
पैरो तले दबाना है
जिंदगी एक संघर्ष बड़ी है
आगे बढ़ते जाना है।
इतिहास उठा के तुम देखो
जिसने गिर के चलना सीखा
है बना वही आज यहां
लक्षमन की अदभुत अमिट रेखा।
है अहम् नही विश्वाश मुझे
अब दूर धरा तक जाना है
निकलते रवि की तरह
अंधियारा दूर भगाना है।
जिंदगी एक संघर्ष बड़ी है
आगे बढ़ते जाना है…….